परंपरागत रूप से, इन्सान परमेश्वर को बनाने की एक अनुचित कोशिश में होशियार रहा है। मूर्तिपूजा बाहर हो सकती है, और अन्दर भी। हमारे मनों में अपनी सोच पर आधारित काल्पनिक परमेश्वर के गुण होते हैं। हम परमेश्वर के कई गुणों को समझते तो हैं, परन्तु अकसर हम उन गुणों को इंसानी गुणों के कई गुने बढाकर समझ लेते हैं। इससे एक अलग तरह के परमेश्वर की तस्वीर आती है जो बहुत छोटा होता है, जो हमारे गहराई के दिनों में खड़ा नहीं हो पाता। परमेश्वर की ओर से आए प्रकाशन के बिना इंसानी ताकत में उसे और उसके गुणों को समझ पाना असम्भव है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि हम परमेश्वर की सिध्दाताओं का वर्णन करने के लिए किसी भी शब्दकोश का प्रयोग करें। आखिरकार हममें से कौन है जो तब तक अनंत को अपने मनों में समझ या समा सकने का दावा कर सके, जबतक कि पवित्र आत्मा अपने वचन लेकर उसकी गहराई और ऊँचाई को प्रकट न करे जो सबसे बढ़कर है? आइये कुछ ईश्वरीय गुणों को समझें और इन्सानी समझ से उनकी तुलना करें :
परमेश्वर सर्वशक्तिमान है। सर्वशक्तिमान की इंसानी परिभाषा का मतलब होगा कि वह अत्यधिक मजबूत है। हमने शक्तिमानों, विशालकाय मशीनों, बिजली इत्यादि की शक्ति देखी है। हमनें राक्षसों, डायनासोरों और ड्रैगनों जैसे मजबूत जीवों की कल्पना की है। हम आशा करते हैं कि परमेश्वर उन सब से भी कई गुना शक्तिशाली है। इंसानी मनों में यह तस्वीर दर ला सकती है। पर, आइये इंसानी इतिहास से उस छण के बारे में सोचते हैं जब यीशु क्रूस पर लटका हुआ था।
“और आने जाने वाले सिर हिला हिलाकर उस की निन्दा करते थे। और यह कहते थे, कि हे मन्दिर के ढाने वाले और तीन दिन में बनाने वाले, अपने आप को तो बचा; यदि तू परमेश्वर का पुत्र है, तो क्रूस पर से उतर आ।
इसी रीति से महायाजक भी शास्त्रियों और पुरनियों समेत ठट्ठा कर करके कहते थे, इस ने औरों को बचाया, और अपने को नहीं बचा सकता। यह तो “इस्राएल का राजा है”। अब क्रूस पर से उतर आए, तो हम उस पर विश्वास करें। उस ने परमेश्वर का भरोसा रखा है, यदि वह इस को चाहता है, तो अब इसे छुड़ा ले, क्योंकि इस ने कहा था, कि “मैं परमेश्वर का पुत्र हूं।“ (मत्ती २७:३९-४३)
यदि वह सर्वशक्तिमान और परमेश्वर का पुत्र है, तो इंसानी तौर पर उसकी शक्ति को इस्तेमाल करने का सबसे महत्वपूर्ण छण है। अपने आप को बचाओ, अपनी ताकत का इस्तेमाल करो, नीचे उतरो, और दुश्मन का सामना करो। और बेहतर है कि जल्दी करो। मत्ती २६:५३-५४ में जब वह गतसमनी के बगीचे में गिरफ्तार किया जा रहा था, हम देखते हैं कि यीशु इन शब्दों से उन चेलों को डांटता है जो उसका बचाव करने का प्रयास कर रहे थे,
“क्या तू नहीं समझता, कि मैं अपने पिता से बिनती कर सकता हूं, और वह स्वर्गदूतों की बारह पलटन से अधिक मेरे पास अभी उपस्थित कर देगा? परन्तु पवित्र शास्त्र की वे बातें कि ऐसा ही होना अवश्य है, क्योंकर पूरी होंगी?”
बचपन में मैंने एक पहलवान की कहानी सुनी थी जिसने अपनी पत्नी की कलाई पकड़ते हुए उसे गलती से चोट पहुँचा दिया था। डायनासोरों की फिल्मों में मैंने देखा था कि उसकी पूँछ घुमते हुए सब चीजों को तोड़ फोड़ डालती है। एक बार किसी ने मुझसे सवाल पूछा था, “क्या आप यह कह रहे हो कि सर्वशाक्तिमानता अपने हाथ में अन्डे को बिना तोड़े पकड़ कर रखना जानती है?” परमेश्वर का स्वभाव बिलकुल वैसा ही जान पड़ता है। मसीह कमजोर बन गया, जबकि वह सर्वाधिक शक्तिशाली था। उसका वर्णन किया गया है कि वह टूटी हुई नरकट जैसी कमजोर चीज को भी नहीं तोड़ता है; वह पापियों के साथ नरमता बरतता है; वह प्रेम की सम्पूर्ण योजना का इंतज़ार करता है; वह अपनी शक्ति के इस्तेमाल में धीमा दिखता है। मैं इस तरह से कहूँगा – वह अपनी सर्वशाक्तिमानता को अपनी योजना में अपनी पूरी शक्ति न इस्तेमाल करने के लिए इस्तेमाल करता है। परमेश्वर कमजोर सर्वशक्तिमान बन जाता है।
ज्यादातर लोग यह भी मानते हैं कि परमेश्वर सर्वज्ञानी भी है। वह सब बातें – भूत, वर्त्तमान और भविष्य – संभव, असली और असम्भव – सबकुछ जानता है। उसके पास सम्पूर्ण ज्ञान है। फिर भी कलवरी के क्रूस की वजह से उसने हमारे पापों को याद न रखना चुना है। हमारे मनों में दूसरों द्वारा की गई भलाई से ज्यादा बुराई को याद रखना स्वाभाविक लगता है। सोचिये! सर्वज्ञानी परमेश्वर आपने जो भी पाप किये हैं उनकी जानकारी नहीं रखता। कई बार हम देखते हैं कि यीशु ऐसी चीजों को जानने से इनकार करता है जो उसे जाहिर पता होनी चाहिए थीं – परमेश्वर के राज्य का समय, व्यक्तिगत ईनाम और लहू की बीमारी-ग्रस्त औरत द्वारा छुआ जाना इत्यादि। वह भुलक्कड़ सर्वज्ञानी बनना चुनता है। परमेश्वर सबसे बुद्धिमान है। परन्तु, प्रेरित पौलुस कुरिन्थियों को लिखी अपनी पहली पत्री में परमेश्वर की मूर्खता (१:२५) का जिक्र करता है। बुद्धिजीवी संसार को क्रूस का सन्देश मूर्खता जान पड़ता है। उसमें कोई दार्शनिक या धार्मिक आकर्षण नहीं दिखता; यह इंसान को अपने कर्म सुधारने को नहीं कहता; यह सुसमाचार के द्वारा लाई गई क्षमा को मुफ़्त में ग्रहण करने को कहता है। परमेश्वर मूर्खतापूर्ण बुद्धिमान होना चुनता है। हमें यह भी पता है कि परमेश्वर सर्वव्यापी है। वह आसानी से दिखाई पड़ना चाहिए। सैकड़ों बार हमने यह बातें सुनी हैं, “परमेश्वर कहाँ था जब .......?” परन्तु, वह छिप जाता है। वह अदृश्य है। वह अपने क़दमों के द्वारा सूखी पत्तियों की आवाज नहीं आने देता। जिससे हम उसे विश्वास से खोजें। वह अनुपस्थित सर्वव्यापी होना चुनता है।
यदि इंसान अपनी कल्पना से बाइबल बनाता, तो हम इस तरह के विरोधाभासी गुण न सोचते। हम देह्धारण किए मसीह की कल्पना न कर पाते। हम साहस के साथ एक ही व्यक्ति में सम्पूर्ण ईश्वरीयता और सिद्ध इन्सानीपन के मौजूद होने का दावा ण कर पाते। इंसान नहीं समझ सकता कि कैसे मसीह ने इंसान बनने के लिए अपने आप को नम्र किया, और फिर भी सभी नामों से ऊंचा नाम ग्रहण किया (फिलिप्पियों २:५-११), और उस परमेश्वर को प्रकट किया जो नम्रतापूर्वक ऊंचा है। पुराने नियम में कई बार जब परमेश्वर की महिमा दिखाई पड़ती है, परमेश्वर की उपस्थिति गहन बादलों और घनघोर अंधकार से घिरी हुई पाई जाती है (निर्गमन २०:१८-२१)। क्रूस पर भी तीन घंटों के लिए परमेश्वर ने स्वयं को अंधकारमय महिमामय दिखाया। वह अन्धा देखनेवाला भी है (यशायाह ४२:१८-२०, उत्पत्ति १६:१३)। वह कुरूपित सुन्दर भी है (यशायाह ५३:२, भजन २७:४)।
मसीह का क्रूस ऐसे विपरीत लगने वाले गुणों को एक ईश्वरीय व्यक्ति मसीह में समागम होते हुए प्रकट करता है। जब मसीह ने क्रूस पर अपना जीवन त्यागा, तब परमेश्वर इंसान के पापों की ओर अपना सिद्ध न्याय और अपने सृजित संतानों की ओर करुणा दोनों को प्रदर्शित किया। वाकई में वह करुणामय न्यायकर्ता है (अय्यूब ९:१५)। इंसान कैसे अपने पापों का भुगतान करके नरक में अनन्त गुजारता। पर अब, सिद्ध करुणामय न्याय की वजह से परमेश्वर हर उस व्यक्ति को क्षमा करने में सक्षम है, जो मसीह के नाम में उसके पास आता है। करुणा न्याय पर जयवन्त होती है (याकूब २:१३)। परमेश्वर प्रेम है। वह वाकई प्रेम करना जानता है, वह प्रेम में कार्य करता है, वह प्रेम करने की सोचता है, और प्रेम को कार्यान्वित करता है। फिर भी अपने सिद्ध प्रेम में वह सिद्ध तरीके से नफरत भी करता है (भजन १३९:२२)। वह पाप से नफरत करता है, परन्तु पापी से प्रेम करता है। वह नफ़रतमय प्रेमी दिखाई पड़ता है। ऐसे अजीबोगरीब विपरीत गुणों के समागम के बीच धर्मशास्त्रियों के मध्य परमेश्वर की सर्वसत्ता का विवादस्पद मुद्दा है। परमेश्वर सब चीजों पर शासन करता है। वह जो चुनता है वह करता है। उसने अनंत में सभी अपनों को चुन लिया। अंततः कोई भी चुना हुआ व्यक्ति ख्य हुआ नहीं रहेगा। फिर भी, सुसमाचार की उसकी योजना में, इंसानी इच्छाशक्ति का इस्तेमाल पहिये का जरूरी कीला है। यीशु मसीह और उसके उद्धार के मुफ़्त वरदान को स्वीकार या इंकार करना प्रत्येक मनुष्य की जिम्मेदारी है। परमेश्वर उस चुनाव पर नियंत्रण नहीं करता है। सच्चाई तो यह है कि परमेश्वर हमें उसके पास सच में आजाद करने के लिए लाता है। आज्ञापालन के लिए आजाद और उसे अपनी पीठ दिखने के लिए आजाद। यह परमेश्वर की लचीली सर्वसत्ता है।
ऐसे गुणों के बारे में सोचना हमें हमारे घुटनों पर, उसके वचन पर थरथराने को और हमें अपनी नजर में मूर्ख करार करने की जगह पर ला देना चाहिए। यह हमें आराधक बना देना चाहिए। यह हमें समाप्त कर देना चाहिए। जैसे प्रेरित पौलुस ने रोमियों ११:३३-३६ में पुकार उठा, “आहा! परमेश्वर का धन और बुद्धि और ज्ञान क्या ही गंभीर है! उसके विचार कैसे अथाह, .....उसके मार्ग ...... प्रभु की बुद्धि ........ उसका ........उसकी ओर से..... उसी के द्वारा..... उसी के लिये सब कुछ है: उस की महिमा युगानुयुग होती रहे: आमीन!”
कमजोर सर्वशक्तिमान