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दोषारोपण का सिद्धान्त
Translated from the booklet by Pastor Carl H. Stevens, of www.ggwo.org titled, ‘The Doctrine of Judging.’

अध्याय I : क्या परमेश्वर ने कहा है?

हे भाइयों, एक दूसरे की बदनामी न करोजो अपने भाई की बदनामी करता है या भाई पर दोष लगाता है, वह व्यवस्था की बदनामी करता है और व्यवस्था पर दोष लगाता है; और यदि तू व्यवस्था पर दोष लगाता है, तो तू व्यवस्था पर चलनेवाला नहीं पर उस पर हाकिम ठहरा व्यवस्था देनेवाला और हाकिम तो एक ही है, जो बचाने और नाश करने में समर्थ है पर तू कौन है, जो अपने पड़ोसी पर दोष लगाता है? (याकूब ४:११-१२) इन पंक्तियों में याकूब दोष लगाने और बदनामी करने (अपयश) के विषय में बताता है। यूनानी भाषा में “दोषारोपण” के लिये क्रिनो शब्द है। क्रिनो के कई अर्थ हैं, जैसे “अलग करना, चुनना, आदर करना, अनुमोदन करना, विचार करना, ठान लेना, पता करना, अथवा दोष लगाना।” इस सन्दर्भ में यह उस व्यक्ति का जिक्र करता है, जो निर्णय सुनाता है या दूसरों पर आक्षेप या दोष लगाता है। यह माना जा सकता है कि ऐसे निर्णय देखे जा सकने वाले तथ्यों पर आधारित होते हैं। दूसरा शब्द, जिसका अनुवाद “बदनामी करना” है, वह काटालालेयो है। इसका शाब्दिक अर्थ “विरोध में बोलना” या “नीचा बनाकर बोलना” है। यह बदनामी, खुला दोषारोपण, चरित्र की मानहानि है, जो साधारणतया किसी के पीठ पीछे की जाती है। ए टी रॉबर्टसन ने इसे “किसी की अनुपस्थिति में कठोर शब्द कहना” कहा है। जबकि क्रिनो तथ्यों पर आधारित दोषारोपण को दर्शाता है, काटालालेयो अफ़वाहों और अनुमानों पर लिये गए फैसले को बताता है। काटालालेयो १ पतरस २:१२ और ३:१६ में भी मिलता है, जहाँ पर अन्यजातियों ने मसीहियों पर गलत दोष लगाया कि वे बुरे काम करते हैं, यद्यपि उनके इल्जामों में कोई दम नहीं था। ध्यान दें कि याकूब ४:११ और १२ में बदनामी करने और दोष लगाने दोनों को बराबरी से वर्जित किया गया है। यद्यपि किसी व्यक्ति के पास सब तथ्य हैं और उसका दावा प्रमाणित किया जा सकता है, फिर भी वह न्याय नहीं घोषित कर सकता है। परमेश्वर के वचन के अनुसार इन दोनों में कोई अंतर नहीं है। जैसा कि याकूब ४:११ में कहा गया है, क्रिनो और काटालालेयो दोनों ही केवल किसी व्यक्ति पर ही नहीं, परन्तु  व्यवस्था पर भी दोष लगाते हैं। किसी व्यक्ति पर दोष लगाना व्यवस्था पर दोष लगाना है। किसी की बदनामी करना व्यवस्था की बदनामी करना है। याकूब ने अपनी पत्री में दस बार नोमोस शब्द का प्रयोग व्यवस्था के सम्बन्ध में किया है। याकूब १:२५ और २:१२ में “स्वतंत्रता की सिद्ध व्यवस्था” के विषय में लिखता है। याकूब २:८ में यह “प्रेम की राज व्यवस्था” है। क्या कोई यह कह सकता है कि वह इन व्यवस्थाओं पर दोष लगाने (रोक लगाने, सजा सुनाने) के लिए तैयार है? व्यवस्था न्याय के विरुद्ध करुणा को आनन्दित होने देती है। यह वह व्यवस्था है जिसने रोमियों ८:२ में बन्दियों को स्वतंत्र किया है: “क्योंकि जीवन की आत्मा की व्यवस्था ने मसीह यीशु में मुझे पाप की और मृत्यु की व्यवस्था से स्वतंत्र कर दिया है” यदि परमेश्वर ने अपने पुत्र के लहू के आधार पर एक पापी को शुद्ध, धर्मी, और ग्रहणयोग्य घोषित कर दिया है, तो कौन इस जीवन की व्यवस्था को चुनौती दे सकता है? पवित्रता के नियम प्रत्येक मनुष्य के स्वर्ग के अयोग्य होने को खुल कर दिखा देते हैं, परन्तु  यीशु मसीह के सम्पूर्ण कर्म के सर्वोपरि नियम पापियों के उद्धार और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लिये मार्ग तैयार करते हैं। व्यवस्था नियमों और नीतियों के एक बासी संग्रह से कहीं अधिक है। यह परमेश्वर का वचन है - यीशु मसीह का मन है (१ कुरिन्थियों २:१६) यह वह है जिसे दाऊद प्रेम करता था (भजन संहिता १, १९; ११९:९७)  गेरहार्ड किटैल अपने नए नियम के थियोलोजिकल शब्दकोष में व्यवस्था को याकूब १:२१ के वचन से तुलना करते हैं, जो भटके हुए पापी को उद्धार तक लाता है। मसीहीजन याकूब १:१८ में उसी सत्य के वचन के द्वारा दुबारा जन्मे हैं। इसलिये दूसरों पर दोषारोपण करके व्यवस्था पर दोषारोपण करना उद्धार के आधार पर ही आक्रमण करने के जैसा है। यह परमेश्वर की आज्ञाओं, उसके अनुग्रह, प्रेम और क्षमाशीलता पर इल्जाम लगाना है। परमेश्वर ने विश्वासियों की ओर अपने प्रेम की घोषणा की है और उन्हें दोषित ठहराए जाने से मुक्त कर दिया है। क्रिनो और काटालालेयो दोनों उसके वचन और स्वभाव की सच्चाई पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। ईश्वर मनुष्य नहीं कि झूठ बोले, और न वह आदमी है कि अपनी इच्छा बदले क्या जो कुछ उसने कहा उसे न करे? क्या वह वचन देकर उसे पूरा न करे?” (गिनती २३:१९) परमेश्वर अपने वचन के समान है (योहन्ना ८:२५)। उसने अपने वचन को अपने नाम (भजन संहिता१३८:२ में चरित्र) से अधिक महत्व दिया है । परमेश्वर के वचन का न्यायकर्ता बनकर बैठना एक गम्भीर बात है। उसके वचन की निन्दा करना उसकी निन्दा करना है। याकूब कहता है कि किसी विश्वासी पर आक्रमण करना इस उपदेश पर आक्रमण है। इब्रानियों १:३ समझाता है कि सब वस्तुएँ “उसके सामर्थ्य के वचन” से सम्भाली हुई हैं। जो वचन के अनुसार नहीं चलते हैं, उनके लिये दो बातें कही जा सकती हैं। पहली, याकूब की पत्री में एक मुख्य बात यह है कि विश्वास कामों के बगैर व्यर्थ है। वह विश्वास जो किसी के व्यवहार में परिवर्तन न पैदा करे, वह कोई विश्वास नहीं है। यीशु ने कहा था, “उनके फलों से तुम उन्हें पहचान लोगे” (मत्ती ७:१६), न कि उनके अंगीकार के द्वारा। याकूब ४:११-१२ के अनुसार जो न्यायकर्ता होता है, वह व्यवस्था को करने वाला नहीं है। परिणामस्वरुप उसके कामों में कमी यह प्रमाणित करती है कि वह स्वयं आत्मा से परिपूर्ण नहीं है। वह दूसरों के बारे में धारणाएं बनाता और फैलाता है, जबकि उसकी स्वयं की जीवनशैली सही नहीं है। वह अपना जीवन भाइयों के लिये नहीं देता है, न वह प्रार्थना और निवेदन के द्वारा मध्यस्थता करता है। वह ‘बुरा न सोचो’ (१ कुरिन्थियों १३:५) पर नहीं चलता है, और भटके हुओं को यीशु के बारे में बताने में व्यस्त नहीं  है। क्या अन्धा अन्धे को मार्ग दिखा सकता है? क्या दोनों गड्ढे में नहीं गिरेंगे? ....तू अपने भाई की आँख के तिनके को क्यों देखता है और अपनी आँख का लट्ठा तुझे नहीं सूझता? (लूका ६:३९,४१) लकड़ी का तिनका एक यथार्थ है, पर क्या कोई मनुष्य उसे निकालने में योग्य है? उसे पहले अपनी दृष्टि के अन्धेपन पर ध्यान देना होगा, जैसा यीशु ने कहा, “तुममें से जिसने भी पाप नहीं किया है वह पहला पत्थर मारे” (योहन्ना ८:७) दूसरी, याकूब १:२२ कहता है: “परन्तु  वचन पर चलने वाले बनो, और केवल सुनने वाले ही नहीं जो अपने आप को धोखा देते हैजब वचन का प्रचार किया जाता है, उस पर विश्वास के आज्ञापालन में असफलता न सिर्फ अपरिपक्वता उत्पन्न करती है, बल्कि मन में धोखे की एक वास्तविक प्रक्रिया आरम्भ कर देती है। समस्या की विशालता याकूब ४:११-१२ में प्रकट की गई है - वहाँ न केवल वचन को करने की अस्वीकृति है, परन्तु उस व्यक्ति के मन में सुनने की इच्छा भी नहीं है। वह व्यक्ति जो दोषारोपण करता है, वह वचन पर रोक लगाता है। हो सकता है कि उसकी शुरूआत अध्ययन और प्रार्थना के प्रति लापरवाही या पुलपिट से आने वाले संदेश के प्रति परिचितता से हुई हो। उसने अपना पहला प्रेम खो दिया, अर्थात उसने परमेश्वर के प्रेम को पहचानना और उसे ग्रहण करना रोक दिया है। उसके बाद आज्ञाकारिता में भी कमी आ गई। महाआज्ञा दूसरों के लिये एक बुलाहट हो गई। सुसमाचार प्रचार टाला गया। प्रार्थना करना आगे के लिये स्थगित कर दिया गया। स्थानीय कलीसिया में संगति निरन्तर कम होती गई। ऐसा मसीही अपने विवेक को हर बात को गम्भीरता से न लेने के लिए समझाने की कोशिश करता है। परन्तु अन्त में यह छोटे और नुकसानरहित दिखने वाले आत्मछल एक विशालकाय अनुपात में बढ़ जाते हैं। कई निर्दोष विश्वासी दोषारोपित और बदनाम किए जाते हैं, खासतौर से वे जो परमेश्वर के वचन को थामे रहते हैं। दृढ़विश्वास को त्यागा जाता है, आज्ञापालन का मजाक उड़ाया जाता है, और उपदेश को विकृत किया जाता है। वचन पालन करने के बदले उस पर आक्रमण किया जाता है। कुछ मामलों में जो व्यक्ति पहले बाइबल के आधारभूत उपदेशों को मानते और प्रचारित भी करते थे, उन्होंने उसी वचन को मानना त्याग दिया और उसका इंकार किया है जिसके द्वारा वे बचाए गए थे। वे दोषारोपण और बदनामी के व्यवहार से शुरू करते हैं और अन्त में वे परमेश्वर के वचन पर दोष लगाते है। एक विश्वासी के लिये यह पहचानना बहुत जरूरी है कि दोषारोपण सिर्फ एक बीमारी ही नहीं, परन्तु  यह शैतान की योजना का एक वास्तविक हिस्सा है, जिसके द्वारा वह मसीही को परमेश्वर के वचन से अलग करता है, और उसकी आत्मिक परिपक्वता में छल के द्वारा रुकावट लाता है। विश्वासियों को अपने शब्दों को आत्मिक उन्नति और अनुग्रह देने (इफीसियों ४:२९) और दोषारोपण, बदनामी, बुराई, और गलती निकालने में इस्तेमाल न करना सीखना अति आवश्यक है। हे दुष्ट दास मैं तुझे तेरे ही मुंह से दोषी ठहराता हूँ (लूका १९:२२) जो जो निकम्मी बातें मनुष्य कहेंगे न्याय के दिन वे हरएक उस बात का लेखा देंगे क्योंकि तू अपनी बातों के कारण निर्दोष और अपनी ही बातों के कारण दोषी ठहराया जाएगा (मत्ती १२:३६-३७) वह विश्वासी जो परमेश्वर के वचन के अनुसार बोलचाल रखता है, उसकी नींव पक्की होगी (मत्ती ७:२४-२५) परन्तु  वे लोग जो लगातार बदनामी और दोषारोपण में लगे रहते हैं, उनका परमेश्वर के खिलाफ़ विद्रोह करना और दु:खदाई आत्मिक अनुभव की ओर जाना निश्चित है।

 अध्याय II : तू कौन है?

तू कौन है जो दूसरे के सेवक पर दोष लगाता है? उसका स्थिर रहना या गिर जाना उसके स्वामी ही से सम्बन्ध रखता है, वरन वह स्थिर ही कर दिया जाएगा क्योंकि प्रभु उसे स्थिर रख सकता है (रोमियों १४:४) यही प्रश्न याकूब ४:१२ में पूछा गया है। उस हिस्से में याकूब इसी विषय की ओर उसके पीछे छिपे परमेश्वर के वचन पर दोष लगाने के बारे में बात करता है। रोमियों १४ में पौलुस  इस बात पर ध्यान दे रहा है कि दोषारोपण का मसीह के काम पर क्या प्रभाव होगा। आज बहुत से लोग बहुत उद्वेग से परमेश्वर के वचन की ओर अपने सम्मान की बात पर जोर देते हैं। बाइबल की त्रुटिहीनता के बचाव में बहुत कुछ कहा गया है। फिर भी ये लोग निर्मूल पक्षपातों और मापदंडो से लिपटे रहते है। “परन्तु  वे यहोवा की कल्पनाएँ नहीं जानते हैं, न उसकी युक्ति को समझते हैं” (मीका ४:१२अ) ऐसे लोगों में वचन जगह नहीं पाता है (योहन्ना ८:३७) वे उद्धार में हो सकते हैं, परन्तु  उनके भाव व अनुभव परमेश्वर के नहीं हैं: “जो परमेश्वर से होता है, वह परमेश्वर की बातें सुनता है, और तुम इसलिये नहीं सुनते कि परमेश्वर की ओर से नहीं हो” (योहन्ना ८:४७) पौलुस  रोमियों १४ में मसीहियत के दो समूहों का वर्णन कर रहा है - निर्बल और बलवान। पहला समूह कुछ ज़्यादा ही सचेत था। यह विश्वासी परम्परावादी मसीही अनुभव में लिपटे हुए थे। वे बहुत कड़े नियमों का पालन करते थे और कुछ दिनों को धार्मिक रूप से मनाते थे। पौलुस  प्रेरित ने ऐसे विश्वासियों के समूह को गलातियों की पत्री में यूनानी भाषा मे एस्थेनिस (asthenes) कहा है। आमतौर पर इसका अनुवाद “निर्बल या कमजोर” किया गया है, परन्तु  इसका उपयोग क्षमता की कमी और आतंरिक कमी का वर्णन करने के लिये भी किया गया है। पौलुस  ने एस्थेनिस शब्द का प्रयोग गलातियों की पत्री में किया है जहाँ पर वह कुछ विश्वासियों को फिर से परम्परावाद की ओर पलटने के लिये झिड़कता है। उसने उन्हें चिताया की ऐसा कमजोर अर्थहीन दिखावापन सिर्फ दासत्व में ले जाएगा: पर अब जो तुमने परमेश्वर को पहचान लिया वरन परमेश्वर ने तुमको पहचाना तो उन निर्बल और निकम्मी आदि शिक्षा की बातों की ओर क्यों फिरते हो, जिनके तुम दोबारा दास होने चाहते हो” (गलातियों ४:९) पहली दो पंक्तियों में यह भेद करने के बाद पौलुस तीसरी पंक्ति में बलवान और निर्बल दोनों को सलाह देता है: “खानेवाला न खानेवाले को तुच्छ न जाने, और न खानेवाला खानेवाले पर दोष न लगाए, क्योंकि परमेश्वर ने उसे ग्रहण किया है पंक्ति ३ का अंतिम भाग शायद विश्वासी पर दोष लगाने से रोकने का सबसे मुख्य कारण बताता है: “कि परमेश्वर ने उसे ग्रहण किया है “ग्रहण करना” प्रॉसलम्बानो (proslambano) है, जिसका अर्थ है, “अपने पास लेना; या मित्रता में स्वीकारना; उसे ग्रहण करना जो पहले अलग पर वापिस एक कर दिया गया है।” यदि परमेश्वर ने, जो कि सम्पूर्ण धर्मी और न्यायी है, पापी को मित्रता में ग्रहण किया है, तो अन्य पापी लोग उससे और किसी तरह का व्यवहार कैसे कर सकते हैं? पंक्ति ४ में पौलुस  इस विचार का विवरण करता है और यह समझाता है कि प्रत्येक विश्वासी “उसके स्वामी के सामने” स्थिर रहता है या गिरता है। वह परमेश्वर ही था जिसने मनुष्य जाति के लिये अपने पुत्र के लहू के द्वारा छुटकारा मोल लिया। उसने ही मूल्य चुकाया। इसीलिए एक रचयिता, उद्धारकर्ता और प्रभु के तौर पर, अपने लोगों पर न्याय करने का एकमात्र अधिकार परमेश्वर के पास है। इसके पश्चात, प्रेरित पौलुस हर दोषी ठहराने के काम के पीछे की निरर्थकता को समझता है: “वरन वह स्थिर ही कर दिया जाएगा क्योंकि प्रभु उसे स्थिर रख सकता है” (रोमियों १४:४ब) यह भाग यह अन्देशा करता है कि विश्वासी पर दोषारोपण और सजा सुनाने की कोशिश के बावजूद प्रभु उसका समर्थन और स्थापन करेगा। “परन्तु तेरे परमेश्वर यहोवा ने तेरे निमित्त उसके शाप को आशिष में बदल दिया, इसीलिए कि तेरा परमेश्वर यहोवा तुझ से प्रेम रखता था” (व्यवस्था विवरण २३:५ब) कितना सुन्दर विचार! परमेश्वर विश्वासी को खड़ा करेगा क्योंकि उसकी ख्याति दाँव पर लगी है। बाइबल का इतिहास साबित करता है कि जब भी परमेश्वर के लोगों के विरुद्ध शत्रु जमा हुए, प्रभु उनको बचाने के लिये विशेष तरीके से आया। बादल और आग के खम्भे ने मूसा और इस्त्राएलियों को लाल समुद्र पर फिरोन की सेनाओं से बचाया (निर्गमन १४:१९-२०)। स्वर्गदूत एलीशा नबी की रक्षा करने के लिए इकट्ठे हुए (२ राजा ६:१९)। परमेश्वर ने हिज़किय्याह और उसकी सेनाओं की सहायता के लिये एक स्वर्गदूत को भेजा : तब यहोवा ने एक दूत को भेज दिया जिसने अश्शूर के राजा की छावनी में सब शूरवीरों, प्रधानों, और सेनापतियों को नष्ट किया” (२ इतिहास ३२:२१) दोषारोपण एक भयानक खेल है। परमेश्वर की सुरक्षा उसके लोगों के साथ है। उसकी धार्मिकता के कारण वह सताए जाने वालों का बदला लेगा। तू धार्मिकता के द्वारा स्थिर होगी, तू अंधेर से बचेगी, क्योंकि तुझे डरना न पड़ेगा, और तू भयभीत होने से बचेगी, क्योंकि भय का कारण पास न आएगा” (यशायाह ५४:१४)

 स्वयं पर दोषारोपण

अत: हे दोष लगाने वाले, तू कोई क्यों न हो, तू निरुत्तर है, क्योंकि जिस बात में तू दूसरे पर दोष लगता है, स्वयं ही वह काम करता है” (रोमियों २:१) ऊपर दी गई पंक्ति में मुख्य शब्द है “अत:।” ग्रीक भाषा में यह शब्द डियो (dio) एक तुलनात्मक सर्वनाम है,जो यह सूचित करता है कि जो बात कही जा रही है, उसे पहले कही गई हर बात से सम्बन्धित समझा जाना है। रोमियो के पहले अध्याय में पौलुस  मानव जाति के भ्रष्ट स्वभाव का वर्णन करता है। पहले पंक्ति २० में परमेश्वर अपनी उपस्थिति को सृष्टि के द्वारा प्रकट करता है। परन्तु पंक्ति २१ में मनुष्यों ने “परमेश्वर को महिमा योग्य नहीं माना।” उन्होंने उस पर विश्वास करने से इनकार किया और इतना ही नहीं बल्कि वे चौपायों और जानवरों की तस्वीरों पर विश्वास और उनकी आराधना करने लगे। इस कारण परमेश्वर ने उन्हें उनकी अभिलाषाओं की ताकत के नीचे छोड़ दिया (पन्क्ति २३-२५) चूँकि नीचे जाने की प्रवृति चलती रही, इसीलिए पंक्ति २६ में प्रभु ने उन्हें उनकी नीच कामनाओं के वश में छोड़ दिया।  उनकी लालसाएँ उन्मुक्त हो गईं जिन्हें रोका नहीं जा सकता था और इस से समलैंगिकता के अस्वाभाविक रूप का जन्म हुआ (पन्क्ति २६,२७) पद २८ में वह समझाता है कि अन्तत: परमेश्वर ने उन्हें उनके निकम्मे दुराचारी मन के वश में छोड़ दिया। कैनेथ वीस्ट ऐसे मन की व्याख्या इस प्रकार करता है कि “ऐसा मन जो मन ही नहीं है, और मन के कार्य नहीं कर सकता है; एक मन जिसमें सही और गलत की ईश्वरीय परख गड़बड़ और खत्म हो गई है, जिससे अन्तत: उस पर परमेश्वर की सजा पड़ने से रुकना असम्भव है।” ध्यान दीजिए, स्वाभाविक मनुष्यों ने तीन बार परमेश्वर की परीक्षा की, और तीन बार परमेश्वर ने उन्हें उनकी अनियंत्रित लालसाओं के वश में छोड़ दिया। चरित्र और सत्यनिष्ठा की निरन्तर भ्रष्टता पद २९-३२ में दिए गए २१ घिनौनेपन के कामों की बाढ़ को लाती है: इसीलिए वे सभी प्रकार के अधर्म, और दुष्टता और लोभ और बैरभाव से भर गए हैं और डाह और हत्या और झगड़े और छल और ईर्ष्या से भरपूर हो गए, और चुगलखोर, बदनाम करने वाले, परमेश्वर से घृणा करने वाले, दूसरों का अनादर करने वाले, अभिमानी, डींगमार, बुरी बुरी बातों के बनाने वाले, माता पिता की आज्ञा न मानने वाले, निर्बुद्ध, विश्वासघाती, मायारहित और निर्दयी हो गए वे तो परमेश्वर की यह विधि जानते हैं कि ऐसे ऐसे काम करने वाले मृत्यु के दण्ड के योग्य हैं, तो भी न केवल ऐसे काम करते हैं, वरन करने वालों से भी प्रसन्न होते हैं बिना नया जन्म पाए मनुष्य के दिल और स्वभाव की तस्वीर प्रस्तुत करने के बाद पौलुस रोमियों २:१ में यह घोषित करता है कि जो दोष लगाते है वे उन्हीं भ्रष्टताओं के दोषी हैं। इतना ही नहीं, “करता है” यूनानी भाषा में प्रेसिस /prasseis है, जो प्रासो /prasso, अर्थात आदत का रूप है। दूसरे शब्दों में आलोचक अपनी आदत के अनुसार यही सब पाप करता है, बस इसीलिए क्योंकि वह दोष लगाता है। न्याय करना और दोषी ठहराना दोनों ही मनुष्य के नीच पापों की सूची में सबसे ऊपर हैं। १ शमूएल १६:७ की सच्चाई पर भी गौर करना चाहिए: “क्योंकि यहोवा का देखना मनुष्य सा नहीं है, मनुष्य तो बाहर का रूप देखता है परन्तु  यहोवा की दृष्टि मन पर रहती हैयहाँ तक कि आलोचनात्मक विचार भी परमेश्वर पहचानता है। मसीह के कलीसिया के मध्य सदस्यों द्वारा आलोचना न केवल कलीसिया को आन्तरिक क्षति पहुँचाती है, परन्तु  जैसा पौलुस ने रोमियों २:२४ में कहा है, उसके द्वारा बाहर भी विनाशक परिणाम आए हैं: “क्योंकि तुम्हारे कारण अन्य जातियों में परमेश्वर के नाम की निन्दा की जाती है, जैसा लिखा भी है यह वास्तव में त्रासदी है। ये आलोचक विश्वास का बचाव करने के बहाने वास्तव में उसी अनुग्रह को धोखा दे रहे हैं जिसने उन्हें उद्धार दिया है। अशिक्षित, अपुनर्जीवित, अविश्वासी मन कलीसिया में इन अभिवृत्तियों को भाँप जाते हैं और परमेश्वर के अनुग्रह को उसकी गलत प्रस्तुति की वजह से अस्वीकार कर देते हैं। न्याय पीछे हटाया गया, और धर्म दूर खड़ा रह गया, सच्चाई बाजार में गिर पड़ी और सिधाई प्रवेश नहीं कर पाती (यशायाह ५९:१४)

अध्याय III : ईश्वरीय अनुशासन

 “दोष मत लगाओ कि तुम पर भी दोष न लगाया जाए क्योंकि जिस प्रकार से तुम दोष लगाते हो, उसी प्रकार तुम पर भी दोष लगाया जाएगा, और जिस नाप से तुम नापते हो उसी नाप से तुम्हारे लिये भी नापा जाएगा” (मत्ती ७:१,२) यहाँ पर यूनानी वाक्यांश मी किर्नेटे (me kirnete) का अनुवाद “दोष मत लगाओ” किया गया है। किर्नेटे  (क्रीनो से) वर्तमानकाल में आदेशात्मक मनाही है। यह यीशु के द्वारा दोष न लगाने के लिये एक जोरदार चेतावनी है। स्मरण रखें कि क्रीनो वास्तविक सबूतों के आधार पर पहुँचा गया फैसला होता है। मसीह की आज्ञा यह है कि भले ही उसकी संतानों के पास सच्ची जानकारी हो, तो भी वे दोष न लगाएँ। क्यों? जिससे उनका न्याय न किया जाए। और इस न्याय के अधार पर ही परमेश्वर यह तय करता है कि जो दोष लगाते है, उनका न्याय किया जाएगा। दण्ड की मात्रा दोषारोपण की मात्रा के अनुसार होगी। बदला इस जीवन में लिया जाएगा न कि आने वाले अनन्तकाल में। हाल ही के वर्षों में मसीही खोजबीन नाम के एक तरीके का प्रचलन बढ़ रहा है। स्वयं से नियुक्त, बिना स्वीकृति और बिना आत्मिक नींव के मनुष्यों ने विभिन्न सेवकाईयों के निरीक्षण और जाँच-पड़ताल का जिम्मा ले लिया है। उनके तरीके असावधानीपूर्ण और मसीही आचार संहिता ही नहीं बल्कि आम आचार संहिता को भी नजरअन्दाज करते हैं। इस संसार के न्यायालयों में भी प्रतिवादी को तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक कि उसको दोषी न सिद्ध कर दिया जाए। ऐसी “फरीसीपन” भरी जासूसी ने शंका और अविश्वास को जन्म दिया है, जो कि आत्मा के फल के दायरे से एकदम बाहर है। ऐसे लोगों ने एक शब्द या संदेश के आधार पर कई नाम खराब किए हैं। मसीहियों को ऐसे आलोचकों से डरने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर उस घमण्डी न्यायी के द्वारा अपने पड़ोसी के लिए योग्य सोचे गए न्याय को लेकर उसी न्यायी पर ही लगा देगा। इससे यह स्पष्ट होता है कि क्यों अक्सर दोष लगाने वाले उन्ही चीजों में गिर पड़ते हैं, जिनकी उन्होंने पहले निन्दा की थी। जो कुटिलता की युक्ति निकालते हैं और कहते हैं हमने पक्की युक्ति खोजकर निकाली है: क्योंकि मनुष्य का मन और हृदय अथाह (आमोक/amoq – धरती की गहराइयों से) है! परन्तु  परमेश्वर उन पर तीर चलेगा; वे अचानक घायल हो जाएंगे वे अपने ही वचनों के कारण ठोकर खाकर गिर पडेंगे; जितने उन पर दृष्टि करेंगे वे सब अपने अपने सिर हिलाएंगे” (भजन संहिता ६४:६-८) प्रत्येक विश्वासी को मसीह यीशु के सम्पूर्ण कर्म की रोशनी में देखा जाना आवश्यक है। इब्रानियों १०:१४ का निष्कर्ष है कि प्रत्येक विश्वासी स्थानिक रूप से “सर्वदा के लिये सिद्ध” कर दिया गया है। योहन्ना ५:२४ के अनुसार मसीही दण्ड से परे है, क्योंकि उसके सारे पापों का दण्ड कलवरी पर दिया जा चुका है। कोई भी व्यक्ति व्यवस्था के मापदण्डों के सामने खड़ा नहीं हो सकता है: क्योंकि व्यवस्था के कामों से कोई प्राणी उसके सामने धर्मी नहीं ठहरेगा: इसीलिये कि व्यवस्था के द्वारा पाप की पहचान होती है” (रोमियों ३:२०) रोमियों ३:१९ब में व्यवस्था इसलिये है “कि हर एक मुंह बन्द किया जाए” इसकी मंशा यह है कि मनुष्यों को उनके अन्त तक ले जाए, जिससे कि वे यीशु की ओर ताकें और उसे अपने उद्धार के लिए पुकारें। मसीही को किसी दूसरे विश्वासी का व्यवस्था के नियमों के द्वारा आकलन करने से पहले निम्नलिखित पंक्तियों पर ध्यान देना चाहिए: इसीलिए कि जितने लोग व्यवस्था के कामों पर भरोसा रखते हैं, वे सब शाप के अधीन हैं क्योंकि लिखा है कि जो कोई व्यवस्था की पुस्तक में लिखी हुई सब बातों के, करने में स्थिर नहीं रहता, वह शापित है (गलातियों ३:१०) व्यवस्था तो क्रोध उपजाती है, और जहाँ व्यवस्था नहीं वहां उसका उल्लंघन नहीं (रोमियों ४:१५) क्योंकि जो कोई सारी व्यवस्था का पालन करता है, परन्तु  एक ही बात में चूक जाए तो वह सब बातों में दोषी ठहर चुका है (याकूब २:१०) क्योंकि जिसने दया नहीं की उसका न्याय बिना दया के होगा: दया न्याय पर जयवन्त होती है (याकूब २:१३) वह विश्वासी जो व्यवस्था के द्वारा न्याय करता है, उसका न्याय भी व्यवस्था के द्वारा ही किया जाएगा और बाइबल रोमियों ३:१० के अनुसार स्पष्ट बताती है कि कोई भी व्यवस्था के आगे खड़ा नहीं हो सकता है: “जैसा लिखा है, कोई धर्मी नहीं, नहीं, एक भी नहीं विश्वासी का न्याय करना उसके परमेश्वर के सामने खड़े होने या गिरने के अधिकार को छीन लेता है। ऐसी आलोचना प्रभु के द्वारा थोपी गई धार्मिकता और उसकी विरासत का इन्कार करती है। मसीहियों के लिये बाध्यता है कि वे वही करुणा और अनुग्रह जो उन्होंने पाया है, उसे व्यक्त करें। “तुमने सेंतमेंत पाया है, सेंतमेंत दो” (मत्ती १०:८ब) परमेश्वर का अनुशासन भी प्रत्येक व्यक्ति की परिपक्वता के अनुसार नियोजित होता है। जिन लोगों को अधिक समझ होनी चाहिए, उन्हें ज़्यादा कड़ाई से अनुशासित किया जाता है। “इसीलिये जिसे बहुत दिया गया है उससे बहुत मांगा जाएगा” (लूका १२:४८ब) यह ठीक हिसाब लगाना बहुत कठिन है कि आज कितने विश्वासी उनके दोषारोपण के बदले में अनसुलझी कठिनाइयों और भ्रम से जूझ रहे है। १ कुरिन्थियों ११:२९-३० में पौलुस  कहते हैं कि कलीसिया में बहुत से निर्बल हैं, क्योंकि वे अन्य विश्वासियों के योगदान की सही क़द्र नहीं करते हैं। प्रत्येक न्याय पुत्र अर्थात यीशु मसीह को सौंपा गया है। वे जो स्वयं न्याय करने का जिम्मा लेते है, वे यीशु मसीह के अधिकार का उल्लन्घन करते हैं। पिता किसी का न्याय नहीं करता परन्तु  न्याय करने का काम पुत्र को सौंप दिया है कि सब लोग जैसे पिता का आदर करते हैं वैसे ही पुत्र का भी आदर करें जो पुत्र का आदर नहीं करता, वह पिता का जिसने उसे भेजा है, आदर नहीं करता (योहन्ना ५:२२-२३)

अगुवों की ईश्वरीय सुरक्षा

कोई दोष किसी प्राचीन पर लगाया जाए तो बिना दो या तीन गवाहों के उसको न सुन (१ तिमुथियुस ५:१९) यदि इस पद को सही तरीके से समझा और माना गया होता, तो यह सैकड़ों मसीही अगुवों को कलंकित और बदनाम किया जाने से बचाता। साथ ही वे अगुवे ऐसे आक्रमणों के द्वारा होने वाले बहुत सारे दुःख और व्यथा से बचाए जाते। “प्राचीन” प्रेसब्युटेरोस (presbuteros) है - जो मण्डली का स्थानीय मुखिया है। यूनानी शब्द मारटस (martus) का अनुवाद “गवाह” है। अर्थात ऐसा व्यक्ति जो क़ानूनी रूप से जो कुछ उसने वाकई में व्यक्तिगत तौर पर देखा या अनुभव किया है, उसकी गवाही दे सके। बाइबल के अनुसार का एक गवाह सुनी हुई बातों और अफवाहों की गवाही नहीं देता। वह ऐसा व्यक्ति नहीं है जो दूसरे दल की भावनाओं के अनुसार आसानी से अपनी सहमति दे दे। उसे प्रत्यक्षदर्शी गवाह होना जरूरी है। किसी अगुवे को दोषी ठहराने के लिये कम से कम दो गवाहों का होना जरूरी है और यदि तीन गवाह हों तो और भी अच्छा होगा। पौलुस  बहुत पहले से प्रचलित एक सैद्धान्तिक नियम को दोहरा रहा है (व्यवस्थाविवरण १७:९, १९:१५, योहन्ना ८:१७, २ कुरिन्थियों १३:१) व्यवस्थाविवरण १९ में, सबूत का भार गवाह पर ही होता है। उसे अपने बयान की सत्यता को स्थापित करना होता था। साक्षियों को वही दण्ड देने का प्रावधान था, जो वे प्रतिपक्षी को दिलवाना चाहते थे। तो अपने भाई की जैसी भी हानि करवाने की युक्ति उसने की हो, वैसी ही तुम भी उसकी करना, इसी रीति से अपने बीच से ऐसी बुराई को दूर करना (व्यवस्थाविवरण १९:१९) यूनानी में “ग्रहण न करो” मे पैराडेकोमाई (me paradechomai) है। इस क्रिया को “मान लेना, स्वीकार करना, या ग्रहण करना” परिभाषित किया गया है। इसका अनुवाद “सत्कार करना” भी किया गया है। १ तिमुथियुस ५:१९ में कही गई बात का सार यह है कि एक मसीही को कोई भी इल्जाम बिना दो या तीन गवाहों के न तो सुनना है, न मानना है और न ही स्वीकार करना है। बताई गई विधि के अलावा उसे नहीं सुनना है। आजकल बहुत कम ऐसा होता है। सुनी हुई बातों के द्वारा इल्जाम रचे जाते और विवादों को बढ़ाया चढ़ाया जाता है। कोई आँखों देखा गवाह नहीं होता है; वे जो ऐसी बातों को सब ओर फैलाते हैं, वे “जो कुछ कहा जा रहा है” उसे लोगों को बताने की जिम्मेदारी का दावा करते है। ऐसी खबरें न्यायालय में सबूत के तौर पर कभी मान्य नहीं पाई जा सकती हैं। लेकिन इस पद में चेतावनी दोष लगाने वाले को नहीं परन्तु  सुनने वाले को दी गई है। ऐसे दोषों को सुनने वाला उतना ही अपराधी है जितना कि दोषारोपण फ़ैलाने वाला। अन्ततः, यह पद तिमुथियुस को लिखा गया है न कि उसकी मण्डली को। पौलुस मण्डली के सदस्यों को ऐसा कोई मौका नहीं देता है जिसके अनुसार वे कलीसिया में अगुवों या प्राचीनों पर लगाए गए अभियोगों को ग्रहण करें। धर्मशास्त्रीय तरीके से कोई भी अभियोग तिमुथियुस के पास पहुँचना चाहिए। १ तिमुथियुस ५:१७ कहता है, “जो प्राचीन अच्छा प्रबन्ध करते हैं, विशेष करके वे जो वचन सुनाने और सिखाने में परिश्रम करते हैं, वे दो गुने आदर के योग्य समझे जाएँकिसी कलीसिया के अगुवे के खिलाफ़ किसी भी मिथ्या आरोप को इस पद से खण्डित हो जाना चाहिए।

सब के सामने डाँट

पाप करने वाले को सब के सामने समझा दे, ताकि और लोग भी डरें (१ तिमुथियुस ५:२०) इस पंक्ति पर बहुत विवाद और प्रतिवाद हुए हैं। कुछ टीकाकारों का कहना है कि चर्च के अगुवों और सभ्रान्त लोगों पर अधिक जिम्मेदारी और जवाबदारी होती है, इसलिये उन्हें अपने पापों की सफाई आम जनता के सामने देना आवश्यक है। दाऊद, जिसने बतशेबा के साथ व्यभिचार किया और उसके पति ऊरिय्याह को मरने के लिये लड़ाई के मैदान में भेज दिया, उसने भजन संहिता ५१:४अ में इस बात का बिलकुल उलटा कहा: “मैंने तेरे (परमेश्वर) सिर्फ तेरे विरुद्ध पाप किया है, और जो तेरी दृष्टि में बुरा है वही किया है इसको ध्यान में रखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जिन्हें सबके सामने झिड़का जाना है, वे वास्तव में पाप में पकड़े गए अगुवे नहीं हैं, परन्तु  वे झूठे गवाह हैं जो दोषारोपण फैलाते हैं।  इस पंक्ति की व्याख्या इस अनुवाद को और भी मजबूत करती है। “वे जो पाप करते हैं” यूनानी भाषा में हमारटानोंटास (hamartanontas) का वर्तमान कर्तृवाच्य कृदंत है। यह शब्द ऐसी लगातार अभ्यस्त क्रियाओं का वर्णन करता है, जो कुछ मानसिक भावों से सम्बन्धित हैं, जो छिपकर रखे जा रहे हैं और बढ़कर बार बार व्यक्त हो रहे हैं। यह शब्द पुल्लिंग और एकवचन है। साधारणतया मिलन को ध्यान में रखते हुए इसकी पहले की संज्ञा समरूप लिंग और वचन होगी।  पद १९ में “प्राचीन” प्रेस्ब्यूटेरोस (presbuteros) पुल्लिंग, परन्तु एकवचन है। लेकिन “गवाहों” (martus) पुल्लिंग बहुवचन है और इसलिए सबसे उपयुक्त पूर्वपद है। यह वे गवाह हैं, जो पाप करते हैं और जिन्हें सबके सामने झिड़का जाना है। अपने यूनानी नए नियम के पृष्ठ ३५२ में हेनरी एल्फोर्ड ने ऐसे बहुत से शिक्षा-शास्त्रियों की सूची दी है, जो इसके पक्ष में हैं। सी. जे. एलिकोट भी हैं, जिनकी “.....पवित्र शास्त्र के प्रत्येक शब्द की व्याकरण और भाषाविज्ञान के अनुसार निर्भय व विस्तृत जाँच” की प्रशंसा एलफोर्ड ने की है। जैसा पहले कहा गया है, व्यवस्थाविवरण १९:१९ कहता है कि झूठे गवाह जिस आरोप को लगाकर दूसरों को बदनाम करते हैं उसी का दण्ड पाते हैं। लोगों के सामने डाँटा जाना दोष लगाने वाले के लिये यही करता है। वह सबके सामने प्राचीन के निरादर की मंशा कर रहा था, परन्तु  वह स्वयं ही है जिस पर सब के सामने रोक लगा दी गई है। यहाँ पर यह फिर से जोर देना चाहिए कि यह पत्र तिमुथियुस के लिये था, न कि उसके चर्च की मण्डली के लिये। पौलुस कलीसिया के अनुशासन के लिये कुछ साधारण निर्देश दे रहा है। जो बात दोष लगाने वाला नहीं चाहता है वह है - खुली फटकार। कुछ लोग गलातियों २:११ को जन साधारण के सामने अगुवे को डाँटने के लिये आधार मानते हैं। यहाँ पौलुस कहता है कि उसने पतरस के सामने उसका “मुकाबला” किया। लेकिन इस समय पतरस का व्यवहार पहले ही आम मुद्दा बन चुका था। इस परिस्थिति की माँग थी - तुरन्त प्रत्युतर। इसके अलावा, पौलुस उस मण्डली का अगुवा था - न कि कलीसिया का एक सदस्य, न ही कोई बाहरी व्यक्ति। इसका मतलब यह नहीं है कि अगुवे का प्रत्येक पाप व्यक्तिगत या सार्वजनिक सबके सामने प्रताड़ित करने के योग्य है। मत्ती १८:१५-२० और गलातियों ६:१-५ क्रमवार अत्यंत सावधानी पूर्वक व्यक्तिगत कदमों की एक शृंखला सिखाते हैं, जिसे किसी भी विश्वासी के पाप के साथ पेश आने में इस्तेमाल किया जा सकता है। इन तरीकों का लक्ष्य दोषी को पुनर्स्थापित करना है, न कि उसे दोषी ठहराना और लज्जित करना। कोई भी अगुवा सवाल किए जाने के ऊपर या अनुशासन के परे नहीं है। फिर भी ऐसी परिस्थितियों के साथ पेश आने के लिये परमेश्वर के द्वारा स्थापित तरीका सभी शामिल विश्वासियों को सुरक्षित करता है और शैतान के काम को चुपचाप और कुशलता से रोकता है। संक्षेप में, परमेश्वर अपने अगुवों को या तो व्यक्तिगत तौर से या अपने प्रशासन से अनुशासित करेगा, परन्तु  यह मण्डली का काम नहीं है (गिनती १२,१६, २ शमूएल १२:७, १ इतिहास २१:७-१०, १ कुरिन्थियों ४:३-५)

अध्याय IV : धर्मी न्याय

मुँह देखा न्याय न करो परन्तु  ठीक-ठीक न्याय करो (योहन्ना ७:२४) कुछ लोग अपने न्याय को सही साबित करने के लिये इस पन्क्ति का जिक्र करते है लेकिन यीशु मसीह सही न्याय के विषय में साफ़ साफ़ समझाता है। ऐसा न्याय “धर्मी” (डायाकाइयान/diakaian) अर्थात बिना पक्षपात के उसके वचन के अनुसार का होना चाहिए। जब दूसरे को न्याय करने की लालसा होती है तब विश्वासी को सिर्फ फैसला करने से रुकना चाहिए और यह पहचानना चाहिए कि दूसरा पक्ष परमेश्वर के सामने खड़ा होता या गिरता है। धर्मी न्याय करने के लिये विश्वासी को स्वयं का मन व्यवस्थित (१ कुरिन्थियो २:१६) करना चाहिए। धर्मी न्याय सतह के सबूतों पर आधारित नहीं होता है, क्योंकि परमेश्वर विजय पर नजर रखता है (१ शमूएल १६:७) यीशु ने योहन्ना ७ में धर्मी न्याय प्रकट किया। वह झोपड़ियों के पर्व में येरूशलेम में था, वहाँ पर उसके विषय में और वह कौन था इस विषय में बहुत भ्रम था। वह मन्दिर में शिक्षा देता था और उपस्थित लोगो में से कुछ के दिलों को यह कह कर उद्घाटित कर देता था, क्या मूसा ने तुम्हें व्यवस्था नहीं दी? तभी तुममें से कोई व्यवस्था पर नहीं चलता तुम मुझे क्यों मार डालना चाहते हो (योहन्ना ७:१९)? यीशु उनके हृदयों के प्रयोजन को परख गया, जो प्रत्यक्ष रूप से मूसा को दी गई व्यवस्था के अनुसार नहीं थे। उस पर लोगों को धोखा देने का इल्जाम लगाया गया, फिर भी इन इल्जाम लगाने वालों के जीवन छल से भरे हुए थे। वे उनके दिल में जो कुछ था उससे कुछ अलग होने का दिखावा कर रहे थे। यह आम बात है। जो लोग दूसरों की आलोचना बहुत बढ़ा चढ़ा कर करते हैं, वही लोग स्वयं व्यवस्था पूरी करने में असमर्थ होते हैं। जो लोग दूसरों पर न्याय करने के अधिकार को जल्दी इस्तेमाल  करते हैं, उन लोगों के पास अपने स्वयं के जीवन पर नियंत्रण नहीं होता है। वे वचन के करने वाले नहीं होते हैं और परमेश्वर की महिमा और परमेश्वर की इच्छा नहीं खोजते। दूसरों की बदनामी करने के द्वारा वे स्वयं को ऊँचा उठाते हैं। योहन्ना ५:३० में यीशु ने कहा, मैं अपने आप से कुछ नहीं कर सकता, जैसा सुनता हूँ वैसा न्याय करता हूँ और मेरा न्याय सच्चा है क्योंकि मैं अपनी इच्छा से नहीं परन्तु  अपने भेजने वाले की इच्छा चाहता हूँ वे जो धर्मी न्याय करते हैं, वे लोग हैं जो पिता की इच्छा पूरी करते हैं। वे प्रतिदिन परमेश्वर के वचन में से ग्रहण करते हैं और उसके विचारों को सोचते है। १ कुरिन्थियों २:१५ कहते हैं “आत्मिकजन सबकुछ जाँचता है परन्तु वह आप किसी से जाँचा नहीं जाता वह ऐसा कैसे कर सकता है? १ कुरिन्थियों २:१६ में उसके पास मसीह का मन है। इसके विपरीत रोमियों ८:७अ कहता है “शरीर पर मन लगाना परमेश्वर से बैर रखना है।” “बैर रखना” (एख्थ्रा/echthra) विरोध और दुश्मनी सूचित करता है। दैहिक (सार्क्स/sarx) मन समझ की स्वाभाविक इन्द्रियों के अनुसार प्रतिक्रिया और प्रत्युत्तर देता है। मसीहियों के लिये यह आवश्यक है कि मसीही एक व्यवस्थित और अनुशासित तरीके से उपदेश सीखे। नीतिवचन २३:७ समझाता है कि एक मनुष्य वही होता है, जो वह सोचता है। जो विश्वासी न्याय करता है और इल्जाम लगाता है, वह उस परमेश्वर के साथ नहीं सोच रहा है जो अपने सभी लोगों की ओर अपने पुत्र के सम्पूर्ण कर्म की रोशनी के आधार पर देखता है। इल्जाम लगाने वाले का अन्त हमेशा निराशा और पराजय होती है। उसके कटाक्ष दूसरे दैहिक मन के लोगों को उत्तेजित कर सकते हैं, लेकिन आत्मिक मनुष्य उन चीजों से अप्रभावित रहता है। पौलुस इस सिद्धान्त को १ कुरिन्थियों ४:३ और ४ में समझाता है: परन्तु मेरी दृष्टि में यह बहुत छोटी बात है कि तुम या मनुष्यों का कोई न्याय मुझे परखे वरन मैं स्वयं अपने आप को नहीं परखता क्योंकि मेरा मन मुझे किसी बात में दोषी नहीं ठहराता परन्तु इस में मैं निर्दोष नहीं ठहरता क्योंकि मेरा परखने वाला प्रभु है ध्यान दें, पौलुस  अपने आप के सिद्ध होने का दावा नहीं करता है। उसका तर्क पापरहित होने के बारे में नहीं है न ही वह अपनी सच्चाई या पापों की अज्ञानता में आराम करता है। उसकी धार्मिकता यीशु मसीह में है। पौलुस ने परमेश्वर को परमेश्वर होने देना और हर इन्सान को झूठा होने देना तय कर लिया है। सभी न्यायों का अधिकार प्रभु के पास है, क्योंकि वही अकेला सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञानी और सर्वव्यापी है। वह विश्वासी जो धर्मी न्याय मसीह के मन के द्वारा करता है, कभी भी दोषारोपण और खुलासा करने की इच्छा नहीं रखता। उसका मकसद परख, अनुशासन, उन्नति, और प्रोत्साहन करना होता है, जिससे परमेश्वर की महिमा हो।

अनुग्रह की नींव

व्यवस्थाविवरण की किताब में ऐतिहासिक सर्वेक्षण में मूसा ने हजारों, सैकड़ों, पचासों, और दसों के ऊपर कप्तानों की अपनी पहली सरकार का वर्णन किया (व्यवस्थाविवरण १:१५-१६) उनका प्राथमिक काम था अपने भाइयों के मुकदमे सुनना और उनका धर्मी न्याय करना परमेश्वर की सरकार के विषय में बातें करते हुए बाइबल बताती है तेरे सिंहासन का मूल धर्म और न्याय है” (भजन संहिता ८९:१४, ९७:२), “उसने अपना सिंहासन न्याय के लिये सिद्ध किया है, अब वह आप ही जगत का न्याय धर्म से करेगा” (भजन संहिता ९:७-८) प्रशासन न्यायों के द्वारा नियमों का व्यवस्थापन है। परमेश्वर के मामले में नियम सिर्फ साधारण रूप से उसके स्वयं की नैतिक सम्पूर्णताओं की प्रतिलिपि हैं। प्रभु जो सम्पूर्ण रूप से पवित्र है अपने चरित्र के प्रकटीकरण के रूप में अपनी पूरी सृष्टि में नैतिक शुद्धता की माँग करता है। उसके नियम उसकी पवित्रता के मापदण्डों की बारीकियों का वर्णन करते हैं। न्याय और धार्मिकता सकर्मक पवित्रता है। धार्मिकता परमेश्वर की व्यवस्था की नींव है। न्याय उस व्यवस्था के व्यवस्थापन का चरित्र है और सजा परमेश्वर के न्याय की व्यवहारिक अभिव्यक्ति है। किसी सिंहासन की शक्ति उसकी नींव की मजबूती के द्वारा निर्धारित की जाती है। नीतिवचन में प्रशासनिक अधिकारियों को निर्धनों का न्याय ईमानदारी से करने की सलाह दी गयी है, क्योंकि उसका सिंहासन सदैव स्थिर रहता है” (नीतिवचन २९:१४)  राजा की रक्षा कृपा और सच्चाई के कारण होती है, और कृपा (धार्मिकता, न्याय) करने से उसकी गद्दी संभलती है” (नीतिवचन २०:२८) परमेश्वर का सिंहासन अनन्तकाल तक स्थिर और सुरक्षित है। यद्यपि उसका स्वयं का ब्रम्हाण्ड पाप और मृत्यु, बुरी दुष्टात्माओं, बगावत, और राज विद्रोह से संक्रमित हो गया है। परमेश्वर के न्याय ने प्रतिशोध की माँग की, इसीलिये उसने पाप के भुगतान और पापियों के लिये फिरौती के तौर पर स्वयं के लिये एक मेमना यीशु मसीह प्रदान किया : जिसने आप ही हमारे पापों को अपनी देह पर लिये हुये क्रूस पर चढ़ गया जिससे हम पापों के लिये मर कर धार्मिकता के लिये जीवन बितायें” (१ पतरस २:२४) परमेश्वर की धार्मिकता व्यवस्था के बिना प्रकट की गई, क्योंकि व्यवस्था को हमेशा के लिये चुनौती दी गई और उसका उल्लन्घन किया गया। यीशु मसीह व्यवस्था के बाहर परमेश्वर की धार्मिकता को साबित और प्रदर्शित करने और परमेश्वर के न्याय को संतुष्ट (प्रायश्चित) करने के लिये प्रस्तुत किया गया (रोमियों ३:२१-२६) उसकी धार्मिकता की महिमा हुई और उसका न्याय संतुष्ट हुआ, क्योंकि दण्ड यीशु मसीह को दिया गया बजाय उनके जो उसके योग्य थे और अब मसीह की धार्मिकता सभी विश्वासियों के खाते में गिनी गयी है (१ कुरिन्थियों १:३०); वह परमेश्वर की धार्मिकता बना दिया गया है (२ कुरिन्थियों ५:२१)

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