यदि कोई गूगल में यीशु का नाम खोजे, तो उसे अठारह करोड़ से ज्यादा हिट मिल जाएंगे। अमेजन में यीशु खोजो और तुम्हें उसके बारे में २६१,४७४ किताबें मिल जाएंगी। वैसे तो उसके विरोधी मतों का जमावड़ा है, क्या हम फिर भी ऐतिहासिक यीशु पर भरोसा रख सकते हैं? कई लोग यीशु को परमेश्वर नहीं मानना चाहते, पर उसे एक अच्छा नैतिक आदमी या ऐसा बेहतरीन भविष्यवक्ता मानते हैं, जिसने बहुत सारे उत्कृष्ट सत्य बोले। अक्सर शिक्षाशास्त्री इसे बुद्धिजीवी तरीके से पहुंचने वाला इकलौता उपयुक्त निर्णय मानते हैं। कई लोग बस हामी तो भर देते हैं, पर इस तर्क की गलतियों पर ध्यान नहीं देते।
यीशु ने परमेश्वर होने का दावा किया और यह उसके लिए मूलभूत रूप से महत्वपूर्ण बात थी कि लोग सही तरह से समझें कि वह कौन है। या तो हम उस पर विश्वास करते हैं या नहीं करते हैं। उसने हमारे पास तटस्थ और मिलावट वाले विकल्पों के लिए जगह नहीं छोड़ी। कोई भी व्यक्ति जिसने ऐसे दावे किए हों जो यीशु ने अपने बारे में किए, वह अच्छा नैतिक व्यक्ति या नबी नहीं हो सकता। वह विकल्प हमारे सामने है ही नहीं, और यीशु कभी वह मौका हमें देना ही नहीं चाहता था।
कैंब्रिज के विगत प्रोफ़ेसर सी एस लुईस जो पहले अज्ञेयवादी थे, इस मुद्दे को भलीभांति समझते थे। उन्होंने लिखा : मैं यहाँ पर किसी को भी वह मूर्खताभरी बात कहने से रोक रहा हूँ, जो लोग अक्सर उसके बारे में कहते हैं : "मैं यीशु को एक महान नैतिक गुरु मानने के लिए तैयार हूँ, लेकिन उसके परमेश्वर होने के दावे को कबूल नहीं करता" कोई इंसान यदि सिर्फ इंसान होकर वह बातें कहता जो यीशु ने कहीं, तो वह एक नैतिक गुरु नहीं कहलाया जाता। वह या तो एक पागल होता - उस आदमी की तरह जो अपने आपको उबला अंडा कहे - या फिर वह नर्क के शैतान से कम नहीं होता। तुम्हें भी व्यक्तिगत चयन करना ही होगा। या तो यह व्यक्ति परमेश्वर का पुत्र था, और है : नहीं तो एक पागल या उससे भी कुछ भयंकर है।
लुईस आगे लिखते हैं : तुम उसे मूर्ख कहकर शान्त कर सकते हो, तुम उसे चांडाल मानकर उसपर थूक सकते हो और उसे नष्ट कर सकते हो, या फिर तुम उसके चरणों में गिरकर उसे प्रभु और परमेश्वर पुकार सकते हो। लेकिन बीचबचाव करने की कोशिश में बेवकूफी भरा यह तर्क न दो कि वह कोई बहुत महान इंसानी शिक्षक था। उसने वह चुनाव हमारे लिए छोड़ा ही नहीं है। उसका ऐसा कोई इरादा नहीं था।
अट्ठाईस साल नए नियम के आलोचनात्मक अध्ययन के बाद कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एफ जे ए हॉर्ट लिखते हैं : उसके वचन इतनी संपूर्णता से उसके खुद के बारे में थे, कि यदि उनमें से उसको मुख्य विषय से हटा दिया जाए तो वे पूरी तरह से बिखर जाएंगे।
मसीहीयत के इतिहासविद केनेथ स्कॉट लतूरेट के शब्दों में : यीशु को उसकी शिक्षाएं इतना खास नहीं बनाती, जबकि वे अपने आप में उसे खास दर्जा देने के लिए काफी हैं। पर मुख्य बात उन शिक्षाओं और उसके व्यक्तित्व के मेल में है। उन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। लतूरेट कहते हैं, सुसमाचार की पत्रियों के पाठकों को यह ज़ाहिर है कि यीशु अपने आपको और अपने संदेश को अलग ना किया जाने वाला मानता था। वह महान शिक्षक था, लेकिन उससे बढ़कर था। परमेश्वर के राज्य, इंसानी चालचलन और परमेश्वर के बारे में शिक्षाएं खास थीं, परन्तु उसके नजरिए से उसकी शिक्षाओं को उसके व्यक्तित्व से बिना तोड़े मरोड़े अलग नहीं किया जा सकता।
यीशु ने परमेश्वर होने का दावा किया। उसका दावा या तो सही है या गलत, और हर किसी को इस सवाल पर वैसा ही ध्यान देना होगा जैसा वह इस सवाल को पूछते वक्त अपने चेलों से आशा कर रहा था : “तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ?” इसके कई उत्तर हो सकते हैं।
पहले, मानो कि उसका परमेश्वर होने का दावा गलत हो। यदि वो गलत हो, तो फिर दो ही विकल्प हैं। या तो वह जानता था कि वह गलत था या वह नहीं जानता था कि वह दावा गलत है। हम हर संभावना को अलग अलग करके उनके सबूतों का आकलन करेंगे।
क्या यीशु मसीह पाखंडी था?
यदि, जब यीशु ने अपने दावे किए उसे पता था कि वह परमेश्वर नहीं है, तो वह झूठ बोल रहा था और सोच समझकर अपने चेलों को धोखा दे रहा था। यदि वह झूठा था, तो वह पाखंडी भी था क्योंकि दूसरों को तो वह यह सिखाता था की ईमानदार रहें चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। उससे भी बदतर बात यह कि यदि वह झूठ बोल रहा था, तो वह तो एक दुष्टात्मा था क्योंकि उसने लोगों को अपने अनन्त के पड़ाव के लिए उस पर भरोसा करने को कहा। यदि वो अपने दावों को साबित नहीं कर पाने वाला था और उसे इस बात का पता था, तो वह अपने अनुनायियों को ऐसी झूठी आशा के द्वारा धोखा देने वाला अवर्णनीय दुष्ट था। इतना ही नहीं, वह मूर्ख भी होगा क्योंकि उसके परमेश्वर होने के दावे उसे क्रूसित होने तक ले गए – वे दावे जिनसे वह आखिरी मिनट तक पीछे हटकर अपनी जान बचा सकता था।
मुझे इतने सारे लोगों को यह कहते सुनकर बहुत अचरज होता है कि यीशु बस एक अच्छा नैतिक गुरु था। चलो जरा तर्क करते हैं। वह एक अच्छा नैतिक गुरु होकर कैसे अपने सबसे मुख्य संदेश (अपनी पहचान) के बारे में जानबूझकर धोखा दे सकता है? यह निष्कर्ष कि यीशु सोचा समझा झूठा था, उसके बारे में या उसके जीवन और शिक्षाओं के परिणामों के बारे में हम जो कुछ भी जानते हैं उससे मेल नहीं खाता। हम जहाँ कहीं भी यीशु का प्रचार होते देखते हैं, वहाँ जीवनों को अच्छी ओर बदलते, राष्ट्रों को अच्छा बनते, चोरों को ईमानदार बनते, शराबियों को सोबर बनते, घृणा करने वालों को प्रेम का स्रोत बनते और अधर्मी लोगों को न्यायी बनते देखते हैं।
ग्रेट ब्रिटेन के महान इतिहासविद विलियम लैकी जो संगठित क्रिश्चियनिटी के बड़े जबरदस्त विरोधी थे, उन्होंने इस संसार पर मसीहियत के प्रभाव को देखकर लिखा : मसीहियत ने अठारह दशकों के दौरान दुनिया के सामने ऐसा आदर्श पेश किया है जिसने लोगों के दिलों को एक गर्मजोश प्रेम से प्रेरित किया; जो सभी पीढ़ियों, देशों, व्यक्तित्वों और हालातों में काम करने में सक्षम था; .. इस तीन चंद सालों के सक्रिय जीवन ने मानवजाति को पुनर्जीवित और नरम करने में सारे दार्शनिकों और नीतिज्ञों के प्रवचनों से बढ़कर काम किया है।
इतिहासविद फिलिप शैफ कहते हैं : यह गवाही [कि यीशु परमेश्वर था], यदि सही न हो, तो बिल्कुल पागलपन या ईशविरोधी होगी .. इतने अहम मुद्दे में आत्म-छल भी उतना ही असंभव है। वह कैसे इतना श्रद्धोन्मत्त या पागल हो सकता है जिसने अपना मानसिक सन्तुलन नहीं खोया हालांकि वह सारे विरोधों और मुश्किलों से शालीनता से गुजरा, उसने उकसाने वाले सवालों के जवाब हमेशा बुद्धिमत्ता भरे उत्तरों से दिया, और जिसने सोचसमझकर बड़ी शांति के साथ अपनी क्रूस पर मृत्यु, तीसरे दिन पुनरुत्थान, पवित्र आत्मा के आगमन, चर्च की स्थापना और यरूशलम के पतन की भविष्यवाणियाँ की – जो सटीक तरह से पूरी हुईं? ऐसा व्यक्ति जो इतना असली, इतना सम्पूर्ण, इतना सुसंगत, इतना सिद्ध, इतना मानवीय और सभी इंसानी महानता से भी ऊपर हो वह न ही धोखेबाज और न ही काल्पनिक हो सकता है। जैसा कि कहा गया है, इस मुद्दे में कवि हीरो से भी ज्यादा महान है। यीशु का आविष्कार करने के लिए कोई यीशु से भी बड़ा लगेगा।
एक और लेख में शैफ यीशुमसीह के झूठा होने के खिलाफ यह तर्क देते हैं : तर्क, व्यावहारिक बुद्धि और अनुभव की दृष्टि में कैसे एक बहुरूपिया – जो धोखेबाज, स्वार्थी और खराब आदमी हो – शुरुआत से अंत तक सत्य और वास्तविकता से भरा हुआ दुनिया के सबसे शुद्ध और महान चरित्र की ईजाद करके उसे लगातार बनाए रख सकता है? उसने आखिर कैसे ऐसी अद्वितीय उपकार, नैतिक महानता और गौरव भरी योजना बनाई और पूरी की होगी, और उसके लिए अपनी पीढ़ी और जाति के सबसे मजबूत विरोध के सामने अपना जीवन कुर्बान किया होगा?
यदि यीशु चाहता था कि लोग उसपर परमेश्वर के तौर पर विश्वास करें और उसके अनुयायी बनें, तो वह यहूदी राष्ट्र में क्यों गया? एक छोटी सी कम जनसंख्या वाले देश के एक अनजाने गाँव में एक आम बढ़ई बनकर क्यों जाना? ऐसे देश में क्यों जाना जिसके लोग पूरी तरीके से एक-परमेश्वर-वाद के पक्षधर थे? वह यूनान, या मिश्र में क्यों नहीं गया जहाँ पहले ही वे कई ईश्वरों और उनके अनेकों रूपों में विश्वास करते थे? ऐसा व्यक्ति जो यीशु जैसे जिया हो, जिसने यीशु जैसी शिक्षा दी हो, और जो यीशु जैसे मरा हो, वह पाखंडी या झूठा तो नहीं हो सकता। चलिए बाकी विकल्प देखते हैं।
क्या यीशु मसीह पागल था?
यदि हम यह पाते हैं कि यीशु का झूठा होना तो असंभव है, तब क्या ऐसा नहीं हो सकता कि शायद वो गलती से अपने आपको परमेश्वर समझने लगा हो? आखिरकार यह संभव है कि कोई व्यक्ति निष्कपट होते हुए भी गलत हो। लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि खासतौर से उस कट्टर अद्वैतवादी संस्कृति में किसी का भी गलती से अपने आपको परमेश्वर मानना, और फिर लोगों से यह कहना कि उनका अनन्त मुकद्दर उस पर विश्वास करने पर निर्भर है, यह कल्पना की कोई छोटीमोटी उड़ान नहीं बल्कि एक प्रत्यक्ष पागल का भुलावा और प्रलाप है। क्या यह संभव है कि यीशु पागल था?
आज हम ऐसा व्यक्ति जो अपने आप को परमेश्वर मानता है उससे वैसा ही बर्ताव करेंगे जैसे उस व्यक्ति से जो अपने आपको नेपोलियन मानता है। हम उसे पागल और भ्रमित मानेंगे। हम उसे ताले में बंद कर देंगे जिससे वह खुद को या किसी और को नुकसान न पहुँचाए। तब भी यीशु में हम उस तरह की अनियमितता या असंतुलन नहीं देखते हैं जो अक्सर पागलपन में देखे जाते हैं। यदि वह वाकई पागल था, तो फिर उसका संयम और शिष्टता बिल्कुल ही अचरजमय है।
जानेमाने मनोचिकित्सक आर्थर नोएस और लॉरेंस कोब ने अपने लेख आधुनिक क्लिनिकल मनोचिकित्सा में स्किज़ोफ्रेनिक व्यक्ति का वर्णन है कि वह यथार्थवादी की बजाय ज्यादा ऑटिस्टिक होता है। वह असलियत की दुनिया से भागना चाहता है। सीधी बात है - एक इंसान द्वारा परमेश्वर होने का दावा करना बिल्कुल असलियत से दूर भागने जैसा ही है।
यीशु के बारे में हम और जो कुछ भी जानते हैं उससे यह तो नहीं लगता कि वह मानसिक रूप से पागल था। यहाँ ऐसा व्यक्ति है जिसने शायद दुनिया के कुछ सबसे गहरे शब्द बोले। उसकी शिक्षाओं ने कइयों को मानसिक गुलामी से आजादी दी है। मैकमास्टर डिविनिटी कॉलेज में व्यवस्थित थियोलॉजी के एमेरिटस प्रोफेसर क्लार्क एच पिनॉक पूछते हैं: “क्या वह अपनी महानता के बारे में धोखे में था, या भ्रमित या अनजाने में धोखेबाज या स्क्रिजोफ्रेनिक? पर, उसकी शिक्षा की गहराई और शैली तो उसके पूरी तरह से मानसिक स्वस्थ होने का सबूत देती है। काश हम उसके जितना स्वस्थ हो पाते!” कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के एक छात्र ने मुझे बताया था कि उसके प्रोफेसर ने क्लास में कहा था कि “सिर्फ इसकी जरूरत होती थी कि बाइबल खोलकर मसीह की शिक्षाओं को उनके मरीजों को सुनाया जाए। उन्हें सिर्फ इसी काउंसलिंग की जरूरत थी।”
मनोवैज्ञानिक गैरी आर कॉलिन्स समझाते हैं कि यीशु प्रेमी तो थे पर अपनी दयालुता को उन्हें
जकड़ने नहीं देते थे; उनका अहम फूला हुआ नहीं था, जबकि उनके इर्द गिर्द आदर करने वाली भीड़ लगी रहती थी; वे अक्सर कठिन दिनचर्या के बीच में भी अपना संतुलन बना के रख पाते थे; उन्हें हमेशा पता होता था वो क्या कर रहे और कहाँ जा रहे थे; वह लोगों का, खासतौर से औरतों और बच्चों का जो उस जमाने में खास अहमियत नहीं रखते थे, उन सबका बहुत खयाल रखते थे; वह लोगों को कबूल कर पाते थे और वह भी उनके पापों पर स्वीकृति दिए बिना; वह लोगों से इस आधार पर पेश आते थे कि वे जीवन में किस जगह पर हैं और उनकी खास जरूरतें क्या हैं। सारांश यह है कि मुझे वे लक्षण नहीं दिखाई पड़ते कि यीशु मसीह को किसी भी तरह की कोई मानसिक शिकायत हो।… वह मैं जिस किसी को भी जानता हूँ उन सबसे बढ़कर स्वस्थ थे - मुझसे बढ़कर भी।
मनोचिकित्सक जे टी फिशर मानते हैं कि यीशु की शिक्षाएँ बेहतरीन थीं। वे लिखते हैं : यदि तुम दुनिया भर के सबसे गुणवान मनोवैज्ञानिकों के लिखे हुए लेख और निबंध इकट्ठा करके, उन्हें बेहतर बनाकर और ज्यादा शब्दों को काँटछांटकर - यदि उसका सार रख लो और भूसा छोड़ दो और दुनिया के महान कवियों की शिक्षा के शुद्ध निचोड़ को एकत्र करो तो तुम्हें यीशु मसीह के पहाड़ी उपदेश का शायद अधूरा और अटपटा सारांश मिलेगा। इन्सान की विश्रामरहित और फलरहित प्यासी कराहों का उत्तर करीब दो हजार सालों से मसीही दुनिया के हाथ में उस उपदेश में रहा है। उसमें मिलता है सकारात्मक, मानसिक स्वास्थ्य और संतुष्टि भरे सफल मानव जीवन का नक्शा।
सी एस लुईस ने लिखा: यीशु मसीह के जीवन, कथनों और प्रभाव का मसीही कारण से हटकर कोई भी कारण बताने की कोशिश ऐतिहासिक रूप से कठिन रही है। इन दो बातों के बीच का फर्क आजतक संतुष्टि के साथ वर्णित नहीं किया गया है। पहली, उसकी नैतिक शिक्षाओं की गहराई व संतुलन और दूसरी, यदि वो वाकई परमेश्वर नहीं होता, तो उसकी शिक्षाओं के पीछे की वह भयंकर विडंबना। इसलिए गैर मसीही अटकलें एक अशांत अचंभे के साथ एक दूसरे का पीछा करती हैं।
फिलिप शैफ तर्क देते हैं : क्या ऐसी बुद्धिमत्ता - आसमान जैसी खुली, पहाड़ों की हवा जैसी साफ, तलवार के जैसी तेज, पूरी तरह से स्वस्थ और ताकतवर, हमेशा तैयार और हमेशा नियंत्रित - अपने ही चरित्र और उद्देश्य के बारे में एक खतरनाक और विध्वंसक भ्रम में पड़ने लायक है। बिल्कुल निरर्थक कल्पना!
क्या यीशु प्रभु था?
मैं व्यक्तिगत तौर पर यह नहीं मान सकता कि यीशु पाखंडी या पागल था। इकलौता बचा हुआ विकल्प है जो उसने दावा किया कि वह मसीहा, परमेश्वर का पुत्र है - और था। लेकिन तर्क और सबूत के बावजूद कई लोग अपने आपको इस निर्णय तक नहीं ला पाते हैं।
दा विंची कोड में डैन ब्राउन दावा करते हैं, “यीशु को सरकारी तौर पर परमेश्वर का पुत्र घोषित करने के द्वारा राजा कांस्टैंटिन ने यीशु को ऐसा देवता बना दिया जो इंसानी दायरे से बाहर है और जिसकी शक्ति को चुनौती नहीं दी जा सकती। उपन्यास लेखक ब्राउन लोगों को यह समझाना चाहते हैं कि यीशु के परमेश्वर के विचार का आविष्कार नाइसिया की सभा में हुआ था। वैसे तो लोगों के बीच यह अक्सर विमर्श किया जाता है, पर यह बात ९९.९ प्रतिशत लिखित इतिहास और बाइबल के शिक्षाविदों द्वारा इन्कार की जा चुकी है। कारण यह है।
नया नियम स्वयं यीशु के ईश्वरीय होने का प्रथम सबूत देता है। चूंकि ये किताबें यीशु संबंधित घटनाओं के कुछ दशकों के अन्दर पहली सदी में ही लिखी गईं थी, ये नाइसिया की सभा से दो सौ साल पहले की हैं। वैसे तो ये पत्रियां विभिन्न लोगों द्वारा तरह तरह की वजहों से लिखी गईं थी, फिर भी एक त्रुटिहीन विषय जो सभी साझा करती हैं वह है कि यीशु परमेश्वर है।
आंतें नाइसीन प्राचीन भी नाइसिया की सभा के काफी पहले से यीशु के परमेश्वर माने जाने के बारे में और भी कई सबूत देते हैं। वे प्राचीन शुरुआती मसीही विचारक थे जो नए नियम के दौर के पूरा होने के बाद (१०० सन्) और नाइसिया की सभा (३२५ सन्) के पहले थे। इनमें जस्टिन मार्टर, इग्नेशियस और आइरीनियस जैसे लोग थे। उनके लेखों को पढ़कर इसमें कोई शंका नहीं रहती है कि वे यीशु को परमेश्वर मानते थे।
नाइसिया की सभा के पहले भी यीशु ईश्वरीय मन जाता था इसका शायद सबसे निर्णायक सबूत गैर मसीही लेखकों की लिखावटों में मिलता है। यूनानी व्यंग्यकार समोसाटा का लूसियन (सन् १७०), रोमी दार्शनिक सेल्सस (१७७) और रोमी राज्यपाल छोटा प्लीनी (११२) यह साफ करते हैं कि शुरुआती मसीही यीशु को परमेश्वर मानते थे। प्लीनी मसीहियों को उनके इस विश्वास के लिए प्रताड़ित करता था। उसने यह लिखा : “वे किसी खास दिन सुबह तड़के ही नियमित मिलकर यीशु के आदर में क्रमवार तरीके से ऐसे गाने गाते थे मानो किसी देवता के लिए गा रहे हों।”
इन सभी सच्चाइयों के मद्देनजर, यीशु की पुनर्कल्पना के लेखक यह निर्णय लिखते हैं : यह इशारा करना कि कंस्टेंटिन के पास ऐसी छमता या प्रेरणा थी कि वह उस सभा को उस निर्णय तक पहुंचा पाए जो उन्होंने पहले ही नहीं जान रखा था, यह मूर्खता भरी सोच होगी। सबूत बड़ा साफ है : यीशु नाइसिया की सभा के काफी पहले से ईश्वरीय माना जाता था।
जब मैं इस विषय को मुस्लिम या यहूदी लोगों से विमर्श करता हूं, तो अक्सर उनका जवाब मजेदार होता है। मैं पहले उन्हें यीशु ने अपने बारे में क्या दावे किए यह बताता हूँ और फिर ये विकल्प उनके सामने रखता हूँ : क्या यह त्रिविधा (पागल, पाखंडी या प्रभु) जायज़ है? जब मैं यह पूछता हूँ कि क्या वे मानते हैं कि यीशु झूठा था, तो उनका जवाब एक तीखा “नहीं!” होता है। तब मैं पूछता हूँ, “क्या तुम मानते हो कि वो पागल था?” उनका जवाब होता है, “बिल्कुल नहीं!” “क्या तुम मानते हो कि वह परमेश्वर है?” इससे पहले कि मैं बात पूरी भी कर पाऊँ, मुझे एक ज़ोरदार “जरा भी नहीं!” सुनने मिलता है। फिर भी सच ये है कि और विकल्प हैं ही नहीं।
इन विकल्पों में मुद्दा यह नहीं है कि कौन सा वाला सम्भव है, क्योंकि खुली बात है कि तीनों ही सम्भव हैं। बल्कि सवाल यह है कि कौन सा विकल्प सबसे ज्यादा मुमकिन है। तुम उसे सिर्फ एक नबी या नैतिक गुरु करार करके दराज में नहीं रख सकते। वो लाजिमी विकल्प नहीं है। वह या तो पाखंडी या पागल या प्रभु और परमेश्वर है। यीशु के बारे में तुम्हारे निर्णय को सिर्फ ज्ञान के खिलवाड़ से बढ़कर होना होगा। जैसा कि प्रेरित यूहन्ना ने लिखा, “परन्तु ये इसलिये लिखे गए हैं, कि तुम विश्वास करो, कि यीशु ही परमेश्वर का पुत्र मसीह है” - ज्यादा जरूरी - ”और विश्वास करके उसके नाम से जीवन पाओ।” (यूहन्ना २०:२१)
सबूत साफ तौर पर इस ओर है यीशु प्रभु है।